बीसवीं शती के पूर्वार्द्ध में तेजस्वी हिंदी पत्रकारिता को गढ़ने वाले मूर्धन्य संपादकों में बाबूराव विष्णु पराडकर अग्रगण्य हैं। उनकी पत्रकारिता राष्ट्रभक्ति और क्रांति धर्म से अनुप्राणित है। ‘आज’ के मुखर-प्रखर संपादक के रूप में पराडकरजी ने हिंदी भाषा और पत्रकारिता को संस्कारित एवं समृद्ध किया। अनेक नए शब्द गढ़े। इस तरह हिंदी की अभिव्यक्ति-सामर्थ्य को बढ़ाया। पराडकरजी की प्रतिष्ठा और सर्वमान्यता का प्रमाण है कि हिंदी संपादक सम्मेलन का पहला अध्यक्ष उन्हें चुना गया। समय की नब्ज पर उनका हाथ था और आने वाले कल की आहट वे सुन लेते थे। 1925 के वृंदावन हिंदी संपादक सम्मेलन के अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में उन्होंने कहा था—“पत्र निकालकर सफलतापूर्वक चलाना बड़े-बड़े धनिकों अथवा सुसंगठित कंपनियों के लिए ही संभव होगा। पत्र सर्वांग सुंदर होंगे, आकार बड़े होंगे, छपाई अच्छी होगी; मनोहर, मनोरंजक और ज्ञानवर्द्धक चित्रों से सुसज्जित होंगे, लेखों में विविधता होगी, कल्पनात्मकता होगी, गंभीर गवेषणा होगी और मनोहारिणी शक्ति भी होगी। ग्राहकों की संख्या लाखों में गिनी जाएगी। यह सब कुछ होगा, पर पत्र प्राणहीन होंगे। पत्रों की नीति देशभक्त, धर्मभक्त अथवा मानवता के उपासक महाप्राण संपादकों की नीति न होगी। इन गुणों से संपन्न लेखक विकृत मस्तिष्क समझे जाएँगे। संपादक की कुरसी तक उनकी पहुँच भी न होगी। वेतनभोगी संपादक मालिक का काम करेंगे और बड़ी खूबी के साथ करेंगे। वे हम लोगों से अच्छे होंगे। पर आज भी हमें जो स्वतंत्रता प्राप्त है, वह उन्हें न होगी।”
ऐसे दूरंदेशी और क्रांतिधर्मी, पराडकरजी के जीवन का सर्वांग रूप में दिग्दर्शन कराती अत्यंत उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण पुस्तक।