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註釋पाश्चात्य आलोचकों और आलोचना सिद्धान्तों पर हिन्दी में स्तरीय पुस्तकें ज़्यादा नहीं हैं। जो पुस्तकें हैं भी, वे पाश्चात्य आलोचना की अवधारणाओं को प्रायः अमूर्त रूप में प्रस्तुत करती हैं। विद्यार्थियों की क्या बिसात है, अच्छे-ख़ासे विद्वान भी उनके निहितार्थों को ठीक से नहीं समझ पाते। ऐसी पुस्तक हिन्दी ही नहीं, अंग्रेज़ी में भी आसानी से नहीं मिलती जो इन अमूर्त अवधारणाओं को उदाहरणों के द्वारा बोधगम्य बनाकर समझा सके। आशा है कि यह पुस्तक इस आवश्यकता की पूर्ति कर पाने में समर्थ हो सकेगी।